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कविता

कविताएँ

कुलदीप कुमार


1. औरत का दर्द
2. फांसी कोठी के क़ैदी
3. बचपन
4. जन्मदिन
5. ऑक्तेवियो पाज़ : एक संस्मरण
6. वापसी
7. समय
8. शाप के सहारे
9. अपनी ज़िंदगी

10. दिनारंभ
11. जनपथ पर बच्चा
12. कविता की वापसी
13. माँ
14. मल्लिकार्जुन मंसूर : जैत कल्यान
15. मेरा कमरा
16. प्रेम
17. शयनकक्ष

1. औरत का दर्द

वह एक औरत है
जो दूर है
और जो मुझे देख रही है
उस औरत की आँखों में वह सब है

जो उसने अपने दर्द के बारे में
कभी नहीं बताया उसकी देह
में तरह-तरह के फूल
हर साल खिलते हैं 

दलदल में वह धँसती है
बढ़ता बोझ टाँगों पर
संभालने की हड़बड़ी में
मैं देखा जाना सहता हूँ
अपने पुरुष होने के अभिमान पर
लजाता हुआ

 

2. फाँसी कोठी के क़ैदी

वे दो थे उनके पास थी उनकी ज़िंदगी
जो कभी उनकी नहीं थी
उनके पास थी उनकी मौत
जिससे वे अब तक कैसे बच पाये

यही अचरज था
कोई चिल्लाया--
बलिया के हो, बलिया के क़ातिल !

अरे, कितने भले थे बाबू साहब इज़्ज़तदार
और तुमने उन्हें भी मार डाला, थू.....
अहसानफ़रामोशी तो कोई इनसे सीखे !
मैंने सीधे उनकी आँखों में देखा

एक अलाव जल रहा था
आत्मा में ठिठुरन थी दीवार पर पहरेदार
आवाज़ दे रहे थे-जागो वे जागे
और क़ैद कर लिये गये

 

3. बचपन

(1)

वहाँ दो आँखें मुस्कुराती हैं
उनका कोई चेहरा नहीं है
शाम के वक्त बिला नाग़ा
घूमने जाने वाले अकेले बूढ़े

अपने छाते खोल कर
वहाँ सूखने के लिए रख आते हैं और
उसी क्षण भूल जाते हैं
गोया वे छाते न होकर

बचपन के खौफ़ हों !
अक्सर सुनसान रहने वाली सड़क पर
कभी-कभार एक पगला तोता बेचने वाला गुज़रता है
दो नन्हे हाथों से "नमस्ते" फुदक कर

कंधों पर आ बैठती है
"तोते में किस राक्षस के प्राण बंद हैं ?
राजकुमारी अभी भी सो रही है ना अंकल ?"
बूढ़े अपने-अपने छाते टटोलते हैं

और उदास हो कर
मुस्कुराते हैं

(2)

अपनी याददाश्त को टटोलता हुआ
उन सभी जगहों पर पहुँचा
जहाँ से लोग अपना-अपना
सफ़र शुरु करते हैं

हर कदम पर
मैंने एक छाया छोड़ी
जैसे पेड़ अपने लबादे छोड़ते हैं
घिरती हुई रात के सामने नंगे होते हुए

वह हर कदम बचपन में गाये
गीतों की धुन जैसा
भोला और मासूम था
जैसे मेरी याददाश्त

जिसने सब कुछ माफ़ किया
और फिर भी....
मायूस नहीं होते
मैं अपना कंधा थपथपाता हूँ

मायूस नहीं होते हर चीज़
अपनी रफ़्तार से होगी
हमारे चाहे या बिना चाहे भी होगी
दुनिया इसी तरह

छूटी हुई चीज़ें
सिर्फ याददाश्त के अँधेरे में मिलेंगी
मैंने उनसे दिन के उजाले में
कितना मिलना चाहा !

 

4. जन्मदिन

सुबह उठकर खिड़की खोली
कमरे में अचानक घुस आयी
बहुत धूप, बहुत हवा, बहुत आसमान
एक दिन मैं भी इस दुनिया में
यूँ ही चला आया था


5. आक्तेवियो पाज़: एक संस्मरण

मैंने कहा आक्तेवियो पाज़ से
आपसे मिलना है
पाज़ बोले मैं पाज़ हूँ
और चूँकि पाज़ हूँ

तो जनाब फिर मैं आपसे मिलूँ तो क्यों कर ?
गले में अटकी प्रार्थना
जल्दी से निगल
मैंने श्रद्धाश्लथ स्वर में विनती की

श्रीमान...महाशय...महोदय...भूतपूर्व महामहिम...
कृपा होगी यदि बिताएँ
इस पाज़ी कवि के साथ भी
कुछ क्षण पाज़ी हूँ

सुनकर पाज़ का लहज़ा हुआ एकाएक
निश्चिंत बोले
भई पहले कहना था
अरे, आप क्यों मिलने आएंगे

मैं ही आता हूँ
प्रकट भए मेक्सिको के मायामय कवि
गंभीरता से मुस्कुराते हुए
फूलों से भी कोमल, वज्र से भी कठोर

आते ही हालचाल पूछा
फिर फरमाइश की
यार कविता तो सुनाओ एक ठो
देखें कहाँ तक पहुँचा आधुनिक भावबोध

श्रीकांत वर्मा के बाद
मैंने खुश होकर कहा आदाब अर्ज़
मुलाहिज़ा फरमाएँ हुज़ूर अर्ज़ किया है....

और फिर गिनकर चुप रहा पाँच मिनट
पाज़ ने हुलस कर पीठ ठोंकी
कहा कविता हो तो ऐसी


6. वापसी

पुरानी जगहों पर
हम लौट-लौट आते हैं
हत्यारों की तरह
इन जगहों में एकांत है

छूटी स्मृतियों की छायाएँ हैं
इन्हीं में दबे हैं हमारे मन में
उभर-उभर आने वाले पाप यह पेड़ है
वहीं जहाँ से चाँद उगा था पहली बार

वहीं है वह मोड़ जहाँ से
हम वापस हुए थे बदहवास
वह बेडौल चट्टान भी है
ठीक उसी जगह

जहाँ पड़ी थी खरोंच उस शाम
ये जगहें हमारा स्वागत नहीं करतीं
फिर हम क्यों आ जाते हैं
यहाँ बार-बार


7. समय

समय नहीं मिलता इन दिनों
मेरे पास हर बात का
बस एक ही जव़ाब है---
समय नहीं मिलता

समय नाम की यह जिंस
आखिर क्यों नहीं मिलती ?
क्या इसकी भी कालाबाजारी
शुरू हो गयी है?

क्या तिजारतियों ने इसे
अपने गोदामों में भर लिया है ?
क्या इसीलिए कुछ लोगों के पास
समय ही समय है

और कुछ के पास
बिलकुल भी नहीं ?
मैं पूछता रहता हूँ ऐसे ही सवाल
समय-असमय

और पाता हूँ
कि समय हर किसी के पास है
उनके भी जिन्हें हर समय पता रहता है कि
उनके पास वह है

और उनके पास भी
जिन्हें हर क्षण यह अहसास होता रहता है
कि उनके पास वह नहीं है.
सभी के पास समय है
और सभी का समय

अलग-अलग है
यूँ यह बात दीगर है
कि समय किसी का भी नहीं होता
पुराने लोग कहा करते थे
हर बात के होने का एक समय होता है

इसलिए हर बात को
उसके समय पर ही होना चाहिए
मसलन फिल्मों में प्रेम तभी होता है
जब अमीर लड़की क़ी विदेशी कार

गरीब लड़के क़ी साइकिल से टकरा जाए
इसके फ़ौरन बाद गाने का समय आ जाता है
और थोड़ी देर बाद दर्शकों के जाने का
लेकिन जीवन में क्या कुछ भी समय

से घटित हो पाता है?
क्या रोटी ऐन उस वक़्त मिल पाती है
जब अंतड़ियाँ भूख के मारे एक-दूसरे को
काट रही हों क्या किसी विस्मृत गीत की कड़ियाँ

उस क्षण याद आ पाती हैं
जब उन्हें गुनगुनाने को
भीतर से हूक उठ रही हो
और तो और क्या जिंदगी में

प्रेम, शादी और बच्चे जैसी
साधारण-सी घटनाएँ भी
समय पर हो पाती हैं ?

(समय से छुट्टी तक तो मिल नहीं पाती दफ्तर से
फिर आप क्या समय-समय किये जा रहे हैं
इतनी देर से ? जो आपका समय है
वही मेरा कुसमय है)

समय तो सबका आता है,
पर ज़रा अलग-अलग ढंग से
देर या सबेर पर जब आता है
तब पता भी नहीं चलता

क़ि हमारा समय पूरा हो गया है
घंटी बज चुकी है
और अब बस तख्ती-बस्ता उठा कर
भाग लेना है.

कितना कुछ जान गया हूँ
मैं समय के बारे में|
मैं--
जिसके पास समय ही नहीं है

खैर !
मेरा समय भी आएगा कभी-न-कभी
तब समझोगे कि
जब समय की लाठी पड़ती है
तब आवाज़ तक नहीं होती

फिलहाल तो मस्ती काटो
मेरे पास समय ही नहीं
किसी को भी समय बताने का
(जनसत्ता में प्रकाशित 1996 )

 

8. शाप के सहारे

एक शाप के सहारे जीते हुए
कैसा लगता है ?
कैसा लगता है
जब रात नींद की आँखों में

कीलें ठोंक कर चली जाती है
और हम छटपटा तक नहीं पाते
बस घबरा कर कूद पड़ते हैं
सीने के बायीं ओर बने

गढ़े में और फिर भी
आँखों में अधजली चिताएँ ढोते हुए
हम बार-बार कोशिश करते हैं
किसी दूसरे जन्म में जाने की

(रहोगे तुम यही अष्टावक्र !
ढोओगे एक ही जन्म में
आठ जन्मों की पीड़ा
तड़पते रहोगे जब तक शेष है

तुम्हारे अंगों में लेश मात्र भी जुम्बिश
नहीं ले सकोगे अब फिर कोई जन्म)
जिस जगह हम बुत बने खड़े हैं
एकदम वहीं पत्थरों पर गिरकर रोशनी टूटती है

हर शाम बेहरक़त जीभ पर
कबूतर पंख फड़फड़ाते हैं
और हम समझते हैं 
कि शब्द तड़प रहे हैं

वक़्त की तरह ही
हम भी टुकड़ा-टुकड़ा होकर चलते हैं
तलुओं से रेत पर
आकृतियाँ बनाते हुए

किसी तरह दिन-दिन करके
बीतते जाते हैं साल पर साल
छीजते जाते हैं
आत्मा पर के वस्त्र

डूबते जाते हैं हम एक विलाप
करती झील के अँधेरे में और
रोज़ सुबह उठने पर सोचते हैं
कैसे कटेगा यह जनम

इस शाप के सहारे
(जनसत्ता में प्रकाशित 1996 )

 

9. अपनी ज़िंदगी

इस शहर में खोजती फिरती है
जब हवा खाली हवा को
मैं ढूँढने निकलता हूँ
अपनी ज़िंदगी पीछे छोड़कर आया हूँ

सारी यादें, सारे अरमान, सारे दुख
पढ़ी-अनपढ़ी किताबें,
पूरी-अधूरी कविताएँ और--

और भी बहुत-सी ऐसी ही फिज़ूल चीज़ें
जिन्हें रखने की जगह
कम-से-कम मेरी
एक कमरे की बरसाती में तो नहीं

(जब होगी तब ये सब न होंगे
मुहब्बत करने वाले कम न होंगे)
यह घर है या रोज़-रोज़ होने वाली कोई दुर्घटना
जिससे मैं हर बार बाल-बाल बच निकलता हूँ

घर मेरी ओर बढ़ता है
रात ग्यारह में सड़क पर
दहकते अंगारों की शक्ल में
मैं दुबक कर उसमें घुस जाता हूँ

ताकि सुबह हो सके घर में
दफ्तर में हो सके रात
खबरों के कचड़े के बीच जहाँ
सूअर की तरह फैलकर सो सकूँ टेलिप्रिंटर की बगल में
(पत्नी घर में है)

बहुत समझाते हैं दुनियादार दोस्त
लिज़लिज़ी कविताओं में गला फाड़ भाषण देते हुए
क्रांतिकारी कवि-मित्र, गालियाँ बकते
सनकी पत्रकार अखबार-से मुड़े-तुड़े

जेब के रूमाल जैसे घिनौने
बुद्धिजीवी पर मैं भी एक ही सख़्तजान
सबको कन्नी दे धँस पड़ता हूँ
अमजद अली ख़ाँ के सरोद में

जिसकी गोद में बैठी
सजी - सँवरी कुलललनाएँ
एहतियातन तालियाँ बजा रही हैं रुक-रुक कर
बतिया रही हैं कैसा होता है घर का खटराग
(वही जिसे कहते हैं मल्लिकार्जुन मंसूर राग खट!)

आखिरकार अमज़द जी भी तोड़ ही डालते हैं
तार और मैं रात्रिसेवा की बस में सवार
एक बार फिर निकल पड़ता हूँ
ज़िंदगी की खोज में नया टिकट लेकर

 

10. दिनारंभ


सुबह के वक़्त
कुछ भी साथ नहीं होता
न दिन की चालाकियाँ
न रात के भोले सपने

एक हल्का-सा गुस्सा आता है
बस अपने को फिर से देखकर


11. जनपथ पर बच्चा


धूप की छतरी के नीचे सोये
डेढ़ साल के बच्चे ने
बगल में बन रहे होटल की ओर
इत्मीनान से धार मारी

तेरहवीं मंज़िल पर तसला ढोती
औरत गिरी धड़ाम
बच्चा निश्चिंत सोया


12. कविता की वापसी: 1980

कुछ घोड़े हिनहिनाए
कुछ रथ दौड़े आए
कुछ बाजे बजे
कुछ राजे सजे

कुछ मालाएँ पड़ीं
कुछ मालाएँ सड़ीं
कुछ प्रसाद बँटा
कुछ शोर छँटा

सबने दी बधाई
कविता वापस तो आयी


13. माँ

1.

माँ नींद में कराहती है.
रात में न जाने कब उठकर
खाट से गिरी रजाई वह मुझे
धीरे से ओढ़ाती है

और बरसों टकटकी लगाकर देखती है.
वह अँधेरे में कुछ फुसफुसाती है
और चुप हो रहती है
रात ने उसकी कभी नहीं सुनी.

अब उसके पास मौसम नहीं आते
तारीखें आती हैं--
पिता के मरने की तारीख़,
मकान के दुतरफा मुकदमा बनने की तारीख़,

घर की नींव में गर्दन समेत धँस जाने की तारीख़,
और शहर के एकाएक तिरछा हो जाने की तारीख़.
वह घर को पहने हुए भी
खुद को बेघर पाती है

वह रंग उखड़े पुराने संदूक को देखती है
और उसी में बंद हो जाती है.
दर्द उसके पाँव दाबता है
साँस कमज़ोर छत की तरह गिरती है, और

आँखें बदहवासी के रंगों की मार झेलती हैं.
त्यौहार लम्बी फ़ेहरिस्तों की याद बनकर आते हैं,
खाली रसोई में वह चूल्हे पर
लगी कलौंस की तरह बैठी रहती है

और रसोई के किलकने का सपना देखते-देखते
बाहर निकल आती है.
एक विशाल बंजर मुँह फाड़े उसकी ओर खिसकता है
वह उसका आना अपनी नसों में महसूस करती है

जहाँ खून कत्थे की तरह जम रहा है.
आँधी आने पर वह हवा के साथ-साथ दौड़ती है
वह सभी को छूना चाहती है - उन सभी को
जिनके कंधों पर चढ़कर आँधी आ रही है.

उसकी झुर्रियाँ पिघलती हैं
और सड़कों पर बहने लगती हैं.
उसकी हथेलियों के बीचोबीच एक गहरा कुआँ है
जिसमें दो आँखें रोज़ गिरती हैं

और बीते समय के शांत जल में डूब जाती हैं.
वह चाहकर भी पीछे नहीं लौट पाती
फूलों और रंगों का साथ कुछ ऐसा ही होता है.
घर उसके लिए दुनिया की खिड़की है

जिससे वह कभी-कभी झाँक लेती है.
वह बरसात में सूख रही धोती की तरह
धूप के इंतज़ार में है,
वह सपने में भौंह पर उगता सूरज देखती है

और उसकी काँपती उँगलियाँ
अंदाज़ से वक्त टटोलती हुई
बालों में खो जाती हैं.
माँ नींद में कराहती है

और करवट बदल कर सोने की कोशिश में
जनम काट देती है.

2.

मैं तुम्हारा नाम लेता हूँ
और एक इक्यावन साल लम्बा अँधेरा
चुपचाप सामने आ खड़ा होता है.
एक धुंध से दूसरी धुंध तक भटकने के बीच

आरी के लगातार चलने की आवाज़
कहीं कुछ कटकर गिरा
तुम्हारे अन्दर-बाहर.
उम्र को तलते हुए

तुमने हर पल असीसा
मैं हँसता रहा झूलते-झूलते
तुम्हारे कंधे पर
वक्त तब भी इतना ही बेरहम था, लेकिन याद है

उन दिनों बारिश बहुत होती थी.
कहीं एक गुल्ली उछली
सड़क पर पहिया चलाते-चलाते
बचपन अचानक गायब हो गया

तुम क्यों मेरा स्याही-सना बस्ता उलट रही हो?
(गुंबदों के नीचे कोई किसी को न पुकारे
वहाँ सिर्फ ध्वनियाँ हैं गोलमोल.)
मैं तुम्हारे दुःख में उतरता हूँ

डर की तरह
जैसे गर्भ में (कोई संगीत नहीं ?
काँपता हो कोई लैंप बिना चिमनी का नंगा

चिराँध में डूबता, काँपता डर की तरह.
कालिख में भीगे उभरते हैं हाथ और बहते हैं
फूलों की तरह किसी याद में.
धूप बहुत तेज़ हो चली है

तुमसे बात तक नहीं हो पाती
दुनिया का सारा गूँगापन
तुम्हारी जीभ पर दानों की शक्ल में उभर आया है
अचंभा होता है कि ज़िंदगी.....

खनक है, सिर्फ खनक
ठनक है तुम्हारे भवसागर की
(कि पार न हों कभी इस अभावसागर से)
ठाकुरजी की आरती करो न !

जाने क्यों ज़िंदा रहने की तड़प में
लोग ज़िंदा तड़पते हैं कैसा मौसम है
बारिश तो क्या उसकी बात भी नहीं
तुमने मुझे मोर के पैर क्यों दिये माँ ?

3.

घर से ख़त आते हैं
मैं काँपता नहीं क़ातिल जैसे सधे हाथों से
किताबों में रख देता हूँ
माँ किताबों से डरती है
जिनके साथ मैं घर से भागा.

4.

सपने में दिखी माँ
वैसी ही सुंदर, गोलमटोल
जैसी तीस बरस पहले
आँखों में नहीं थीं झुर्रियाँ

गालों में नहीं थी काली गहराई
हाथों से छूटकर नहीं गिर रही थी
दृष्टि वह स्याह फ्रेम में जड़े
फोटो में खड़ी थी

गोद में उठाये शायद मुझे
तब उसका चेहरा कातर नहीं था

 

14. मल्लिकार्जुन मंसूर: जैत कल्यान


चौहत्तर साल की वह निष्कंप लौ
एकाएक काँपी और
उसने चश्मा लगा लिया ज़रा देखें
सुरों के बाहर भी है क्या कोई दुनिया ?

 

15. मेरा कमरा

मैं इस कमरे में हूँ
उसी तरह जैसे इस शरीर में
मैं जब उदास गुमसुम होता हूँ
या मुस्कुराता हूँ

या फिर जब खिसियानी हँसी से
खुद को विश्वास दिलाता हूँ कि
किसी न किसी अर्थ में ज़रूर
मैं औरों की तरह दुनिया के लिए

कारामद हूँ तब मेरे शरीर की तरह ही यह
कमरा भी हिलता है
इस कमरे के चप्पे-चप्पे को मैंने टटोला है
इसकी गर्द में अपनी गंध डाली है

इसकी आत्मा पर बाकायदा
मेरी खरोंचों के निशान हैं
यहाँ मैंने मारा और प्यार किया प्यार किया
और मारा यह कमरा नहीं

पुराने ख़तों का पुलिंदा है
किसी याद न की जा सकने वाली
मारपीट में फटी क़मीज़ है
मेरे मुँह से निकली पहली गाली है

जो मैंने उस लड़की को दी
यह कमरा नहीं एक टेढ़ा शीशा है
जिसमें कई शक्लें एक साथ दिखती हैं
मैं हाथ चला बैठता हूँ

और वे ग़ायब हो जाती हैं
ज़ख्मी छोड़ कर यह कमरा नहीं
बरसों से जोड़ी हुई किताबें हैं
जिन्हें पढ़ने का वक्त

अब कभी नहीं मिलेगा
मैं इस कमरे में रहता रहूँगा
उसी तरह जैसे इस जर्जर शरीर में

 

16. प्रेम

1.

आज फिर दिखीं वे आँखें
किसी और माथे के नीचे
वैसी ही गहरी काली उदास
फिर कहीं दिखे वे सांवले होंठ

अपनी ख़ामोशी में अकेले
किन्हीं और आँखों के तले
झलकी पार्श्व से वही ठोड़ी
दौड़कर बस पकड़ते हुए

देखे वे केश लाल बत्ती पर रुके हुए
अब कभी नहीं दिखेगा
वह पूरा चेहरा ?

2.

एक चिड़िया
अपने नन्हे पंखों में
भरना चाहती है
आसमान वह प्यार करती है

आसमान से नहीं अपने पंखों से
एक दिन उसके पंख झड़ जाएंगे
और वह प्यार करना भूल जाएगी
भूल जाएगी वह अंधड़ में घोंसले को बचाने के

जतन बच्चों को उड़ना सिखाने की कोशिशें
याद रहेगा सिर्फ पंखों के साथ झ़ड़ा आसमान

3.

स्त्री
सब कुछ सहती है
प्रेम में पुरुष
नहीं सह पाता
प्रेम भी

4.

दो काले गुलाब सिहर उठे
न जाने कितने प्रकाशवर्ष दूर से आई एक निःश्वास
और चारों ओर एक महीन-सा जाला बुन गयी
खिंच गयी बहुत दूर तलक

पत्थर पर गहरी लकीर
ज्योतित हो उठी
जनवरी की एक अँधेरी दुपहर
जब अचानक किसी ने कहा लो कॉफ़ी पियो

 

17. शयनकक्ष

अगल-बगल बनी जुड़वा क़ब्रों पर
फूल चढ़ाने रोज़ आते हैं दो अजनबी
नींद की मानिंद बेआवाज़
एक ख़फ़ीफ़-सी आहट होती है जब

दो जोड़ा आँखें पास आकर
बिना ठहरे आगे बढ़ जाती हैं
कोई ख़्वाब में बड़बड़ाता है--
नदी किनारे मत जाना !

अमूमन रात का वक्त होता है यह
जब परछाइयाँ एक-दूसरे को ढूँढने निकलती हैं
और एक-दूसरे में से होकर गुज़र जाती हैं
बे-अहसास रात क़ब्रों तक आती है

और अपनी लहरों में सारे फूल समेट ले जाती हैं
फिर क़ब्रें करती हैं 
ताज़ा फूलों का इंतज़ार अगली रात तक
एक आदमी बेहोशी में छटपटाता है
अपना सीना दबाए

 


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हिंदी समय में कुलदीप कुमार की रचनाएँ